आज राम भरोसे की मडई के बाहर दालान में चौपाल लगाए हैं चौबे जी,कुछ खोये-खोये और चुप्पी साधे हुए । राम भरोसे के उकसाने पर आखिर चुप्पी तोड़ी के बोले महाराज, “का बताएं ..हर साल की तरह इसबार भी आके लौट गया हिंदी दिवस । खुबई पार्टी -फंग्सन हुआ सरकारी विभाग मा । मगर कौन समझाये खुरपेंचिया जी को कि, अब ज़माना बदल गया है भइया। हर चीज मशीनी हो गयी है , यहाँ तक कि भावनाएं भी । भावनाओं की कब्र पर उग आये हैं घास छल- प्रपंच और बईमानी के , ऎसी स्थिति में सच से परहेज़ क्यों नहीं करते ? ठीक है हिंदी हमरी माता है मगर आजकल लोग पत्निभक्त ज्यादा हो गए हैं हमरे हिन्दुस्तान मा । बिना लाग-लपेट के सांच बात कहेंगे तो लग जायेगी खुरपेचिया जी को, इसीलिए हमने कुछ नही कहा । ई बताओ राम भरोसे तुमको नही लगता कि पहिले हिंदी हमरी मातृभाषा थी, अब मात्र भाषा हो गई है और यही हाल रहा तो हिंदी को मृत भाषा होने में देर नाही लगेगी । का गलत कहत हईं ?

सही कहत हौ महाराज, आजकल सबकुछ उलटा- पुल्टा हो गया हैं चुटकुलानन्द की चिट्ठी की तरह । बड़हन बड़हन खिलाड़ी अंग्रेजी में खेलत हैं , अंग्रेजी मा कॉमेंट्री करत हैं , ईहाँ तक कि ससुर तमाशावीन भी हिंदी बोले से बचे के चाहत हैं……और तो और हिंदी संस्थानन में बहाल होत है अंग्रेजीपरस्त अफसर, ऐसे में हमरी- तोरी सच्चाई वैसहीं जैसे चांदी की थाल में गोबर । तिरजुगिया के तs हिंदी बोले पर नोकरी से ही निकाल दिहल गईल । हाकीम कहलें कि हिंदी बोले वाला प्रोफेशनल नाही हो सकत । बोला राम भरोसे ।

इतना सुन के गजोधर से ना रहल गईल कहलें कि साल में एकबार आवत हैं हिंदी डे । मनावल जात हैं सरकारी महकमा में हिंदी पखौड़ा- हिंदी डे । लंबा-चौड़ा भाषण उड़ेल के ढोल पीटल जात हैं कि हमरी हिंदी है अनमोल । काहे का अनमोल भईया ? अगर सही मायनों में हिंदी अनमोल होती तो क्या इसे हम श्राद्ध पक्ष में याद करते ? बाकी दिन लंबी चादर तान के सोते ? श्राद्ध पक्ष यानी हिंदी पखवाड़ा, दूनू के मतलब एक होत हैं …उनकी याद जो अब नाही है ई दुनिया में । कुछ कहो तो धीरे से कान में फुसफुसाते हैं खुरपेंचिया जी कि दो कौड़ी की हिंदी के लिए साल में पंद्रह दिन कम है का ? बहुत सोच-विचार के हम मनीषियों ने यह तय किया है कि हिंदी दिवस श्राद्ध पक्ष में ही मनाया जाए । काहे कि श्राद्ध पक्ष में कोई भी शुभकार्य नही होता है । पंद्रह दिनों तक केवल मरे हुए लोगों को ही याद किया जाता है । आज के कॉन्वेंट युग में हिंदी भी तो मृत भाषा हो चुकी है तो फिर इस पखौड़े को हिंदी पखौड़ा क्यों न माना जाए ?

इतना सुनके रमजानी मियाँ ने अपनी लंबी दाढ़ी सहलाया और कथई दाँतों के बीच से पान की पिक पिच्च से फेंकते हुए फरमाया हुजूर, हमारे पास भी आया था हिंदी डे का निमंत्रण, धरती के स्वर्ग कश्मीर से । मैंने मना कर दिया भइया कि मुझे अभी स्वर्गवासी नही होना । ये भी कोई बात हुई बरखुरदार कि साल में एक बार हिंदी से निबट लो फिर बाकी दिन अपनी यानी ससुरी अंग्रेजी की ? अब समझ मा आया कि हमरे देश मा भ्रष्टाचार कईसे आया ?

कईसे आया रमजानी मियाँ कछु हमहूँ के बता,उत्सुकता भरी निगाह डालते हुए पूछ बैठी तिरजुगिया की माई ।

बात ई हs चाची कि हिंदी बोले बालन के इतना औकात कहाँ कि ऊ राजा, कलमाडी आऊर कोनीमोझी बन सके । ई सब अंग्रेजी के शब्द करप्शन के कमाल हs । हमरे ईहाँ के भ्रष्टाचार चोरी-चमारी से आगे नाही बढ़ सकत रहे ऊ तs भला हो अंग्रेजी का जिसने भ्रष्टाचार के स्तर को बढ़ाके करप्शन कर दिया । हिंदी वाले तो “मईया मोरी मैं नाही माखन खायो” कह्कह्के सफाई देने में हीं अपना टाईम पास कर देते । बात ई हs चाची कि भ्रष्टाचार को हिंदी रुपी देसी गोबर पानी की तुलना में अंग्रेजी खाद जादा रास आवत है । काहे कि करप्शन का अंग्रेजी खाद बदबू कम करत है चाची बनिस्पत हिंदी भ्रष्टाचार के देसी गोबर से । जबसे ससुरा छेदिया होल्सन बना है यही राग अलाप रहा है कि….जबतक हिन्दुस्तान की पिछड़ी हुई हिंदी जनता हिंदी के गोबर को त्यागकर अंग्रेजी के गुड़ को नही खायेगा आज़ादी का उज्जवल भविष्य गुड़-गोबर होता जाएगा । सिब्बल मूरख हैं का जे कॉन्वेंट प्रणाली के पक्षधर हैं ?

सही कहत हौ बचवा हम तोहरी बात कs समर्थन करत हईं । ई सच हs कि हिंदी खुद टोपी पहनत हैं मगर अंग्रेजी दूसरों के टोपी पह्नावत हएं । जईसे अन्ना आऊर राहुल गांधी । हिंदी की सादगी ट्रांसफर हो गई है अंग्रेजी के पास । जईसे सोनिया गांधी की चुप्पी । हिंदी की सच्चाई अब अंग्रेजी के पास सुरक्षित है । जईसे स्विश बैंक में भारतीय पैसा । मगर अंग्रेजी का मक्कारी चश्मा ट्रांसफर हो गया है हमरी हिंदी को लटपटाके बोले वाला प्रधानमन्त्री के पास । जईसे मनमोहन जी का चश्मा ,जिसके भीतर से घोटाले नही दिखाते । और जहां तक अंग्रजी डंडा कs सवाल है तs ऊ अंग्रेजन के पैदा कईल पुलिस जी कs पास है सुरक्षित ताकि ऊ रात-दिन हमरी सेवा मा तत्पर रहे ।

बहुत देर से चुप्प गुलटेनवा से ना रहल गईल, कहलें कि सच्चाई ई हs कि पूंजीयुग की जिन थोथी नैतिकताओं में हम रहते हैं वहां व्यक्तित्व प्रदर्शन का बहुत महत्व है और व्यक्तित्व प्रदर्शन अंग्रेजी के बिना संभव ही नही है । ई हम्म नाही हमरे गाँव के खुरपेचिया जी कहत हईं । अब ससुरा के कौन समझाये कि यार खुरपेंचिया जी, ई सतयुग नाही है कलयुग है कलियुग और कलियुग मा सच बोलना पाप है पाप बनिस्पत झूठ कs । सरकार के शीर्ष स्थानों पर तो अंग्रेजी पॉप डांस कर रही है और हिंदी लोक नृत्य की तरह किताबों, भाषणों आदि में गुम हो रही है। लेकिन फिर भी हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है. हिंदी की प्रासंगिकता आज यदि कहीं बची है तो वह है, साहित्य में। लेकिन वहां भी पोलिटिक्स हावी है। किस साहित्यकार या पत्रकार या फिर हिंदी में लेखन को जिन्दा रखने वाले को सम्मान से नवाज़ा जायेगा, ये उसके कर्म से ज्यादा पोलिटिक्स के रहमो-करम पर ज्यादा निर्भर करता है। भाई-भतीजावाद भी खूब फल-फूल रहा है। “अँधा बांटे रेवडिया, फिर-फिर अपने को दे ” । इससे क्या आप इनकार कर सकते है ?

देश की संसद में अभी तक हिंदी को वो दरजा नहीं मिल सका है जो एक राजभाषा को मिलना चाहिये। संसद में अधिकतर सदसय अंगरेजी में ही प्रश्न पूछते हैं व बहस करते हैं। सरकारी दफ़्तरों में अधिकतर कार्य अंगरेजी में ही किया जाता है व केवल हिंदी सप्ताह व हिंदी पखवाड़ा मनाने का दिखावा किया जाता है। सरकार इस मामले में गंभीर नहीं है । हर साल हम औपचारिकता कर इस एक दिन इस राष्ट्र भाषा को सम्मान से गदगद कर देते है और फिर बाकि के दिनों के लिए उसे उसी पुराने संताप में तड़पने के लिए छोड़ देते है….इन मानसिकताओं से हमें निकलना पडेगा तभी हम सही मायनों में हिंदी का विकास कर पायेंगे । इसके लिए हम सभी को अपने भीतर इच्छा शक्ति पैदा करनी पड़ेगी कि सारा काम हिंदी में ही करेंगे । पूरे साल हिंदी दिवस मनाएंगे । हिंदी को अछूत नही रहने देंगे । अंग्रेजी का विरोध करेंगे । कॉन्वेंट संस्कृति का परित्याग करेंगे और भारत को इंडिया होने से बचायेंगे ।

इसी सन्देश के साथ आज की चौपाल स्थगित करने की घोषणा की चौबे जी ने यह कहते हुए कि अंग्रेजी का मुह काला हो , हिंदी का बोलबाला हो !

() रवीन्द्र प्रभात

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