स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित चौपाल में गरमा-गरम वहस के बीच चौबे जी ने चुटकी लेते हुए कहा कि ” जेकरे लगे देश कs हिफाजत की जिम्मेदारी है, ऊ ६५ साल से आज़ादी के कभी गड्ढा में तs कभी सड़क पर घुमा रहे हैं । लईनिया रहते नईखे कि घूंघट की ओट में झांककर आजादी के चेहरा पर बनल शिकन देखल जाए । आज़ादी रूपी पहिलकी मेहरारू सन उन्नीस सौ संतालिस में आई रही,दुसरकी मेहरारू के लिए हमरे अन्ना जी आन्दोलन कर रहे हैं । आज़ादी रूपी पहिलकी मेहरारू के रहते दुसरकी मेहरारू लाबे के का मतलब ? अब ये बताओ राम भरोसे कि पहिले से ई क़ानून है कि पति की पचास फीसदी आय पर पत्नी का हक़ । दुई मेहरी वाला शत-प्रतिशत यानी अब देश के खैर नाही जनता जनार्दन कटोरा उठावे खातिर हो जाओ तैयार,काहे कि मोहना हो या मुखर्जी संन्यास लिहल चाहते के बा ? सब त राज भोग खातिर लागल बा । अब त स्थायी शान्ति तबे मिली जब रघुपति राघव राजा राम वाला धुन बाजी । काहे कि गुलशन भोंकासी पार के रो रहल बाटे आऊर ओकराके निहार-निहार के खुश हो रहल बाटे माली ,हम सबके खातिर हs आज़ादी कs मतलब खाली-खाली ।”
एकदम्म सही कह रहें है चौबे जी आप ” जवन देश के अधिकाँश हिस्सा मा सडकों का नामोनिशान ना हो, एक-चौथाई गावों में स्कूल तक न हो, दो-तिहाई आवादी के डॉक्टर नसीब नाही होत, तीन-चौथाई गाँव में बिजुली के दर्शन नाही होत,आधी से जादा लईकन की फ़ौज रोजगार के लिए एडियाँ घिसती हो आऊर जिनके रोजगार मील गए ऊ पूर्णिमा के चाँद यानी तनख्वाह खातिर तरसते हो,रोज कही न कही कवनो न कवनो धनिया के इज्जत नीलाम होई जात हैं रोटी-कपड़ा आऊर मकान खातिर ऊ देश मा आज़ादी की बात करने का क्या मतलब ?” बोला राम भरोसे ।
नाही रे रमभरोसवा पहिले इतना गन्दगी नाही रहा हमरे देश की राजनीति में जेतना आज है । पहिले राजनीति के अपने सिद्धांत थे । जबतक थे, नेता खुद को मजबूत करने की कोशिश करते थे । जनता का दुखड़ा सुनते थे । उसे दूर करने की कोशिश करते थे । जिसने जैसा काम किया काफी हद तक वे उसके सहारे नईया पार कर जाते थे । राजनीतिक पार्टियां जनहित के तमाम अच्छे कामों से अपने किले की ऊँचाई को बढ़ाती रहती थी । सभी लोग जनता की नब्ज टटोलने में लगे रहते थे । विपक्षी दल की असफलता और खुद मजबूत होने की वजह से वे सत्ता तक पहुँच जाते थे । जबरदस्त रस्साकशी होती थी ।दिग्गज नेताओं की लंबी फ़ौज रहती थी । अस्सी के दशक तक दो दर्जन नाम ऐसे थे जिनमें से कोई भी प्रधान मंत्री की गद्दी तक पहुँचने की कुब्बत रखता था । वे जनता के दिलों पर राज करते थे । उस दौर में भी नेता बोलते थे, पर मर्यादा का ध्यान रखते थे । ऐसा नही कि यह दौर पुराना हो । ऐसा भी नही कि उस दौर में घोटाले न हुए हों । ऐसा भी नही है कि किसी नेता ने सारी सीमाएं लांघकर आरोप न लगाए हों पर ऐसा यदा-कदा ही होता था बरखुरदार । अब तो ये रोज प्रसारित होने वाली उस घटिया फिल्म की तरह है,जिसमें मूल्यों के पतन की सारी हदें पार हो जाती है । सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि कोई अपने को दोषी नाही मानता । राजनीति रूपी लंका में सब ५२ गज के हैं । इतना कह के मायूस हो गया रमजानी ।
इतना सुन के तिरजुगिया की माई विल्कुल नेतवन के अंदाज़ में मुस्कुराती हुई चिल्लाई ” ई हुई ना लाख टके की बात रमजानी भईया, मगर ज़माना के साथ साथ बदल गई है ससुरी परिभाषा राजनीति की । कमबखत नेता लोग अब अपने गिरेबान में नही झांकते, दनादन शब्दों के तीर चलाते हैं एक-दुसरे के ऊपर । अपने किला को मजबूत नही करते,दूसरों के किला गिराने की साजिश रचते हैं । आपन चश्मा ठीक नाही करवाते, दूसरे के नंबर पर शक करते हैं । जो उनके साथ रहता है उनको दुनिया का सबसे शरीफ नज़र आता है,भले ही ऊ लाईसेंसी गुंडा काहे न हो ? जो दूसरों के साथ रहता है उनको सबसे बड़ा चोर नज़र आता है,भले हीं शरीफ क्यों न हो ? इतना ही नहीं अरसे तक साथ रहने वाला ईमानदार साथी पाला बदलते ही चोर हो जाता है । रही-सही कसर अफसरशाही पूरी कर रही है । ऊ चाहे पुलिस महकमा हो या प्रशासनिक । पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर कवन लेना चाहेगा ? हुक्म सही हो तो भले ही देर लगाएं मगर गलत को मिनटों में बजायेंगे । मनचाहा पद, मनचाही पोस्टिंग के लालच और सत्ता के कहर के डर ने अफसरशाही को लगभग रीढ़विहीन बना दिया है । पावरफूल नेताओं के सामने चापलूसी की हद तक सिर झुकाए खड़े रहना और हाँ में हाँ मिलाना उनकी डियूटी का हिस्सा हो गया है । नेता आऊर अफसर के गठजोड़ में हो जाती है आज़ादी हलाल, जनता बोले तो मामला ठन-ठन गोपाल ।”
बहुत देर से चुप्प गजोधर को नही रहा गया, बोला ” कैसे कहत हौ लोगन कि आज़ादी नाही है हमरे देश मा । आज़ादी है यत्र,तत्र,सर्वत्र यानी चारो तरफ …पहिले अंग्रेजन के आज़ादी रहे कि देश का फालतू धन रद्दी की टोकड़ी में भरके सात समंदर ले जा के फेंक आएं, अब आज़ादी है अपने देश के नेताओं को कि हचक के खाने के बाद जे बचे ओकराके स्विस बैंक में हिफाजत से रख दें । पहिले गोरे अफसरन के आज़ादी मिलल रहे कि जनता कs सेवा करs ओकरा बदले में उनसे सेवा शुल्क वसूलs अब ऊ अधिकार काले अफसरन के मील गईल । थाने वही है जे अंग्रेजन के टाईम मा रहे बस थानेदार बदल गए हैं, खाने -खिलाने की आज़ादी जईसे पहिले रहे, वईसे आज भी हS । पहले राजा प्रजा कs विकास के नाम पर टैक्स लगाके आपन विकास करत रहलें आजकल उहे आज़ादी अघोषित रूप से मंत्री लोगन के ट्रांसफर कर दिहल गईल बा । आज़ादी कs अधिकार लोकतंत्र में बराबर- बराबर है हमरे देश मा जईसे नेता कs भ्रष्टाचार करे कs आज़ादी आऊर किसानन कs आत्मह्त्या करेकs आज़ादी है । अमीरों को छक के खाने की आज़ादी और जनता कs भूखो मरने की आज़ादी । यानी देश चारागाह है जेकरा पास लाठी है ऊ जबरी भईंस चरईहें, कोई का करी ? “
बाह गजोधर भाई बाह, एकदम्म हमरे मन की बात कहे हो, ई आज़ाद भारत कs दुर्भाग्य ही कहल जाई गजोधर कि जहाँ दिन-व-दिन बढ़ रहल करोड़पतियन के देश मा एक तिहाई जनता पेट भरे खातिर जूझताs या यूँ कहें दासता कs जीवन गुजारताs ।उनकाके खाए कs आज़ादी तs मिलल बा, पर उनकरे पास बा कुछ नाही,पिए के आज़ादी कs नाम पर बस दूषित जल,रहे कs आज़ादी के नाम पर भगवान की रहमत से टिकल घास-फूंस और छप्परो का बना मकान । रोटी के खातिर जिनके बच्चे बड़े मालिकों के लात-जूते खा रहे हैं ज़रा उनके नज़र से देखें तो हमारे समझ में आए कि हाँ वास्तव में हम केतना हद तक आज़ाद हैं ? मायूस होके बोला राम अंजोर ।
इतना सुन के चौपाल में हुक्का गुड़गुडाते स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी चतुरी चाचा क़ी आँखों में पानी भर आया और भारी मन से बोल उठे “बचवा शायद ऊ दिन देश कs दुर्भाग्य मुस्कुरायेल रहे जब हमनी के आपन लहू से सींचके आज़ादी कs कल्पवृक्ष उगवले रहनीं !”
माहौल गमगीन होते देख चौबे जी ने कहा कि “दिन-दिन बढ़ती जा रही मँहगाई ग़रीबों के सारे सुख चैन छीन रही है और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं,कोई किसी की बात सुनने को तैयार नही और लोग कहते है कि हमें अपनी बात रखने की हमें आज़ादी है । घोर कलिकाल आ गया है चाचा। इतना कहकर चौबे जी ने चौपाल अगले शनिवार तक के लिए स्थगित कर दिया ।
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