आज चौपाल में जश्न का माहौल है। होरी का त्यौहार जो है। कहीं पुआ-पुड़ी की तो कहीं गुझिए की महक। कोई महुए के शुरूर में तो कोई ठंडई के गुरूर में। कोई गटक रहा ठर्रा तो कोई बुदका। कोई गा रहा, कोई बजा रहा, तो कोई लगा रहा ठुमका अलमस्ती की हद तक।


अपने दालान में साथियों के साथ पालथी मारकर बैठे चौबे के सिर पर फगुनाहट की आहट का अंदाजा साफ लगाया जा सकता है। रंग से सराबोर, कपड़े फटे हुए और आँखे मदहोशी में। सुबह से ही भाँग खाके भकुआए हैं चौबे जी , फगुनाहट सिर चढ़के बोल रही है। कहते हैं कि -

ई बताओ राम भरोसे ! बियाह के बाद का पहिला फगुआ तुम अइसे ही जाने दोगे का ?

अरे नाहीं महाराज ! ई दिन कवनो बार-बार थोरे नऽ आता है जो गंवाई देंगे हम ।

बीच में टपक पड़ा बटेसर , बोला-राम भरोसे भइया आज मत जइयो घर छोड़कर। खूब खेलियो होरी, खूब करियो बरजोरी भऊजाई के साथ।

अरे हाँ , इ हुई न लाख टके की बात।राम भरोसे ने चिहुँकते हुए कहा।

अचानक नेता जी को देखकर स्तब्ध हो गया चौपाल, नेता जी दोउ कर जोरे, दांत निपोरे मचरे माचर करै जूता उतारी के बईठ गए चौपाल में और पान की गुलौरी मुंह में दबाये बोलै जय राम जी की चौबे जी, आज हमहू आ गए तोहरे चौपाल मा होरी की शुभकामनाएं देने ....!

बहुत अच्छा किये नेता जी, मगर यहाँ तो आदमी की चौपाल लगी है ?

क्यों हम आदमी नहीं है का ?

नहीं आप तो नेता जी हैं .......चुटकी लेते हुए बोला बटेसर

नेता जी खिश निपोर कर बोले क्यों नेता आदमी नहीं होता है का ?

हमारे समझ से तो नहीं होता है, मुस्कुराते हुए बोला बटेसर .....! पूरा चौपाल सन्नाटे में चला गया, चौबे जी ने पूछा ई का कह रहे हो बटेसर, नेता आदमी नहीं होता है , ऊ कईसे ?

अरे हम का बतायीं महाराज, साल भर पहिले इहे होरी में जईसे हीं ठंडई हलक के नीचे गया, वईसे हीं हमको भी नेता बनने की इच्छा हुई

हम जब बताएं अपनी धर्मपत्नी जी से कि " भाग्यवान हम भी नेता बनकर दिखाएँगे"

हमरी धर्म पत्नी ने हमसे कहा - " पहिले हम १५ दिनों तक लतियांगे "

"उसके बाद अगले १५ दिनों तक हम गंदी हवाओं की चाशनी पिलायेंगे, हवा और लात खाकर भी जब तुम मुस्कुराओगे, आदमी से नेता बन जाओगे !"

मतलब समझाईये बटेसर भईया ?

ऊ बात ई है कि "आदमी लात खाने के डर से गलत बातों को हवा नहीं देता , किन्तु नेता का हवा लात से गहरा रिश्ता होता है ....!"

का गलत कहते हैं नेता जी ?

न...न.....न....न....!

तभी टोका-टोकी के बीच पान की पीक पिच्चई से मारते हुए गुलटेनवा ने इशारा किया-

अरे छोडो बटेसर, रंग में भंग हो जाए , फिर नेता और आदमी दोनों मिलकर गाये

जोगीरा सरऽ रऽ रऽ......।

हाँ, काहे नाहीं गुलटेन ! मगर पहिले ठंडई फेर जोगीरा...।

इतना कहकर चौबे जी ने आवाज़ दी !

चौबे जी की आवाज सुनकर पंडिताईन बटलोही में भरकर दे गयी है ठंडई और लोटा में पानी, ई कहते हुए कि - जेतना पचे ओतने पी आ ऽऽ लोगन, होरी में बखेरा करे के कवनो जरूरत नाहीं।

ठीक बा पंडिताईन! जइसन तोहार हुकुम, लेकिन नाराज मत होअ आज के दिन। चौबे जी ने कहा दाँत निपोरते हुए। चौबे जी के कत्थाई दाँतों की मोटी मुस्कान और बेतरतीब मूछों कि थिरकन देख पंडिताईन साड़ी के पल्लु को मुँह में दबाये घूँघट की ओट से मुसकाके देहरी के भीतर भागी। सभी ने एक-एक करके ठंडई गटकते हुए पान का बीड़ा दबाया मुँह में और ताल ठोककर शुरू-

जोगीरा झूम-झूम के आयो फागुन गाँव, चलऽ सन महुए बाली छाँव, कि भइया होश में खेलऽ होरी

करऽ जिन केहु से बरजोरी

देखऽ फिसल न जाए पाँव..... जोगी जी धीरे-धीरे

जतन से धीरे-धीरे, मगन से धीरे-धीरे

कि डारो रंग-अबीरा, अवध में है रघुबीरा

कहीं पे धूप तो छाया है......

जोगी जी फागुन आया है-

जोगीरा सरऽ रऽ रऽ....।

() रवीन्द्र प्रभात

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